यहाँ एक मुनि धर्मकीर्तिजी ठहरे हुए थे। बीच में कुछ सनावद के यात्री दो बसें लेकर यात्रा के लिए आये हुए थे, वे ठहरे हुए थे। ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को भगवान् शांतिनाथ का मोक्ष कल्याणक था । मुनिश्री के आदेशानुसार वे लोग गाजे बाजे के साथ पर्वत पर भगवान् शांतिनाथ की टोंक पर लाडू चढ़ाने गये थे। उस समय मैं तो इन लोगों को पहचानती नहीं थी और न कोई परिचय ही हो पाया था। अब यहाँ कई बार मोतीचंद कहा करते हैं कि- “माताजी! उन यात्रियों में मैं भी था किन्तु आपके दर्शन किये या नहीं? मुझे याद ही नहीं है।“ बात यह थी कि मैं यात्रियों से या अन्य किसी से बहुत कम बोलती थी। अपना उपयोग अपने कार्यों में ही लगा रहता था। कभी ऊपर वंदना के लिए जाती थी, तो कभी नीचे के बीसपंथी मंदिर, कभी तेरापंथी मंदिर के दर्शनों के लिए, तो कभी भगवान् बाहुबली के दर्शनों के लिए चली जाती, वहाँ जाकर कभी-कभी ध्यान भी किया करती थी। सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए नावा से निकलते ही हम लोगों ने एक जाप्य करना शुरू कर दिया था, जो बराबर रास्ते में भी जपते रहते थे एवं जब कभी दिन - रात्रि में अवकाश मिले, वह जाप्य बराबर चलती रहती थी। मैं समझती हूँ कि उसी के प्रभाव से ऐसे रुग्ण, कमजोर शरीर से मैंने छह माह में र्निविघ्न रूप से बारह सौ मील की चलाई कर ली और यहाँ आकर वंदना कर रही थी। वह जाप्य यह है- "ॐ ह्रीं अर्ह श्रीअनंतानंतप्रमसिद्धेभ्यो नमो नमः।" रास्ते में भयंकर सर्दी झेली। पावापुरी से लू-लपट भरी गर्मी की बाधाएँ झेलीं । कभी अधिक चलाई और कभी अधिक अंतराय आदि के कष्ट झेले लेकिन यहाँ तीर्थराज की वंदना कर सब दुःख ऐसे लग रहे थे कि मानों वे फूल के सदृश ही कोमल थे अथवा वे इतना बड़ा पुण्य संचय कराने में कारण हुए थे अतः सुखकर ही प्रतीत हो रहे थे। सम्मेदशिखर की वंदना का माहात्म्य तो अचिन्त्य ही है, जहाँ की एक-एक टोंक के दर्शन से अरबों-खरबों उपवास का फल मिल जाता है और इस क्षेत्र की वंदना करने वाले भव्य जीव अधिकतम उनंचास भव ही ले सकते हैं, इससे अधिक नहीं। यह नियम है कि वंदना करने वालों की नरक गति और तिर्यंच गति टल जाती है